Last modified on 26 अगस्त 2010, at 21:50

तुम्हारे ताज में पत्थर जड़े हैं / आदिल रशीद

तुम्हारे ताज में पत्थर जड़े हैं
जो गौहर<ref>मोती</ref> हैं वो ठोकर में पड़े हैं

उड़ानें ख़त्म कर के लौट आओ
अभी तक बाग़ में झूले पड़े हैं

मिरी मंज़िल नदी के उस तरफ़ है
मुक़द्दर में मगर कच्चे घड़े हैं

ज़मीं रो-रो के सब से पूछती है
ये बादल किस लिए रूठे पड़े हैं

किसी ने यूँ ही वादा कर लिया था
झुकाए सर अभी तक हम खड़े हैं

महल ख़्वाबों का टूटा है कोई क्या
यहाँ कुछ काँच के टुकड़े पड़े हैं

उसे तो याद हैं सब अपने वादे
हमीं हैं जो उसे भूले पड़े हैं

ये साँसें, नींद ,और ज़ालिम ज़माना
बिछड़ के तुम से किस-किस से लड़े हैं

मैं पागल हूँ जो उनको टोकता हूँ
मिरे अहबाब<ref>संगी-साथी, यार-दोस्त</ref> तो चिकने घड़े हैं

तुम अपना हाल किस से कह रहे हो
तुम्हारी अक्ल पर पत्थर पड़े हैं

शब्दार्थ
<references/>