भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम्हारे नयनों की बरसात / श्यामनन्दन किशोर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम्हारे नयनों की बरसात।
रिम-झिम, पल-छिन, बरस रही जो,
बे-मौसम दिन-रात।
उठती आकुल आह धुआँ बन,
घिरता प्राणों का गगनांगन।
प्रिय की सुधि बन चमकी बिजली
सिहरे पुलकिन गात।

जीवन का सिर कितना पंकिल,
जिसमें चुपके से जाता खिल,
करुणा-सा शुचि, दुख-सा सुन्दर
यौवन का जल-जात!

तिमिर विरह का विकल शून्य क्षण।
क्रन्दन, जैसे नभ का गर्जन।
दो उसाँस से चलती रह-रह
थर-थर कम्पित वात।

(11.5.48)