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तुम्हारे प्रणय का कुहरा / अज्ञेय
Kavita Kosh से
तुम्हारे प्रणय का कुहरा आँसुओं की नमी से और सहानुभूति की तरलता से सजीव हो रहा है, और मैं उस सजीव यवनिका को भेदता हुआ चला जा रहा हूँ।
लालसा के घने श्यामकाय वृक्ष और अज्ञात विरोधों की झाडिय़ाँ उस कुहरे में छिपी रहती हैं, और देखने में नहीं आतीं। किन्तु जब मैं आगे बढऩे को होता हूँ, तब उन से टकरा कर रुक जाता हूँ। तब उन का वास्तविक स्थूल, अप्रसाध्य, अव्याकृत कठोरत्व प्रकट हो जाता है।
मैं तुम्हारे प्रणय के घने कुहरे को भेदता चला ज रहा हूँ।
अमृतसर जेल, 25 फरवरी, 1933