तुम्हारे लिए प्यार भेजता हूँ / सुरेन्द्र स्निग्ध
दुख के बोझ को
नहीं सहने के कारण
जिस तरह
आँखों से कपोल तक
आ जाता है आँसुओं का ज्वार
नए पत्ते-फूलों और फलों के लिए
मचलकर
जिस तरह चढ़ जाती हैं
वल्लरियों पर कोमल लताएँ
उमड़-घुमड़कर जिस तरह
उफनती बरसाती कोसी नदी
तोड़कर तटों को
दौड़ पड़ती है महानद की ओर
कुछ उसी तरह
मुझसे मिलने तुम आ गई थीं
भागलपुर कैम्प जेल में
जेल की सींखचों के बीच
मैंने देखी थीं उस दिन
आँसुओं से भरी तुम्हारी आँखें
गँगा और यमुना की
उफनती हुई जल-धाराएँ
किया था अहसास
तुम्हारे हृदय के स्पन्दन का
स्पन्दन
जिसने कुँवारी धरती की धड़कनों को
समेटकर, ला खड़ा कर दिया था
मेरे सामने
प्रिये !
तुम जानती हो
मैं किसी मुक्ति के सूरज को
उगाने के प्रयास के अभियोग में
नहीं आया हूँ जेल
मेरी आँखों के सामने
नहीं है कोई
भविष्य का सुनहरा सपना
जिसमें अँगड़ाई लेता होता है
एक नया और ख़ूबसूरत संसार
मैं तो यहाँ
बिहार के सैकड़ों शिक्षकों के साथ
पेट-भर रोटियों की
गारण्टी माँगने आया हूँ
आया हूँ यहाँ
ताकि, हमारे बच्चे भी
स्कूलों में पढ़ सकें
हमारी पत्नियाँ
अपनी आँखों में
उगा सकें आश्वस्ति का सूरज
हम शिक्षा की ऐसी वल्लरियाँ
लगा सकें कैम्पसों में
जिन पर हमारे बच्चे
खिल सकें फूलों की तरह
लद सकें फलों की तरह
रूप, रँग, गन्ध और रस से भरपूर
समाज को बदलने के
दावे के साथ
हम नहीं आए हैं यहाँ
और न ही फलों के ऐसे वृक्ष
लगाने की माँग लेकर
आए हैं हम यहाँ
जिनका फल
उत्पीड़त समाज का
कोई बच्चा खा सकेगा कभी
हम नहीं आए हैं यहाँ
मथने शोषण का समुद्र
नहीं आए हैं हम
अन्धेरे के गिद्ध के डैनों को काटने !