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तुम्हारे लिए ही..! / भास्करानन्द झा भास्कर
Kavita Kosh से
आज तुम ले ही लो
सारा आकाश
सारा दिन
घूम आओ जहां चाहो
स्वच्छंद
बहती हवा की तरह
छान मार लो
पूरी दुनिया
अपने मन की माफ़िक
जब थक जाओ
चलते चलते अकेला
मन की जिद्दी
पगडंडी पर
मन जब उचाट हो
मनमानी से,
जब हांफ़ने लगो
उहापोह उब में
डुब जाने पर
तब जरुर आना
एक बार
फ़िर से
मेरे पास...
मैं खडा मिलूंगा वहीं
निस्वार्थ
निस्तब्ध
निशब्द
शिद्दत से थामे
जिन्दगी की सांस
सजाये
खुशियों की सेज
संजोये
शान्ति और सुकुन
अहर्निश
तुम्हारे लिए...!