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तुम्हारे लिए / सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
Kavita Kosh से
काँच की बन्द खिड़कियों के पीछे
तुम बैठी हो घुटनों में मुँह छिपाए।
क्या हुआ यदि हमारे-तुम्हारे बीच
एक भी शब्द नहीं।
मुझे जो कहना है कह जाऊँगा
यहाँ इसी तरह अदेखा खड़ा हुआ,
मेरा होना मात्र एक गन्ध की तरह
तुम्हारे भीतर-बाहर भर जाएगा।
क्योंकि तुम जब घुटनों से सिर उठाओगी
तब बाहर मेरी आकृति नहीं
यह धुंधलाती शाम
और आँच पर जगी एक हल्की-सी भाप
देख सकोगी
जिसे इस अंधेरे में
तुम्हारे लिए पिघलकर
मैं छोड़ गया होऊँगा।