तुम्हारे साथ होना चाहती हूँ / प्रतिभा सक्सेना
तब मैं तुम्हारे साथ होना चाहती हूँ.
शैशव की लीलाओं में
वात्सल्य भरे नयनों की छाँह तले,
सबसे घिरे तुम,
दूर खड़ी देखती रहूँगी!
यौवन की उद्दाम तरंगों में,
लोक-लाज परे हटा,
आकंठ डूबते रस-फुहारों में
जन-जन को डुबोते,
दर्शक रहूँगी मैं!
कठिन कर्तव्य की कर्म-गीता का संदेश
कानों से सुनती-गुनती रहूँगी .
लेकिन,
अँधे-युग का,
सारा महाभारत बीत जाने पर,
बन-तुलसी की गंध से व्याप्त
अरण्य-प्रान्तर में वृक्ष तले,
ओ सूत्रधार, तुम चुपचाप अकेले हो,
अधलेटे अपनी लीला का संवरण करने को उद्यत,
उन्हीं क्षणों में तुम्हारे मन से
जुड़ना चाहती हूँ,
तुम्हारे साथ होना चाहती हूँ
यहाँ कुछ समाप्त नहीं होता,
क्योंकि तुम सदा थे, रहोगे,
और मैं भी.
लीला तो चल रही है
सृष्टि के हर कण में,
हर तन में, हर मन में.
इस सीमित में उस विराट् को
अनुभव करना चाहती हूँ.
कि सारी वृत्तियों पर छाये
इस सर्वग्रासी राग को,
समा लो अपने में.
लिए जाओ अपने साथ,
जो असीम में डूबते, मुझसे पार
अनंत होने जा रहा है.
वही अनुभूति ग्रहण कर
मन एक रूप हो जाए.
यह भी अपरंपार हो जाए.
व्याप्त हो जाए हर छुअन में, दुखन में,
जो चलती बेला छा रही हो तुम्हें!
और फिर अनासक्त,
डुबो दूँ, अथाह जल में,
अपनी यह रीती गागर!