तुम्हारे सामने / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल
हम नर्म हैं पर कमजोर नहीं
हम गूँगे नहीं
हमारे मुँह में भी जबान है
हम झुक जाते हैं आदर मे
ताकि आपको अपना अनादर ना लगे
हम कर देते हैं सलाम
ताकि आपको बुरा ना लगे
पर हर एक चीज की हद होती है
हम कैसे भी रह लेंगे, जी लेंगे
अभावों में जीवन-नैया खे लेंगे
पर वो हाथ
जिन्होंने सृष्टि का निर्माण किया
अपनी रचना के आगे कैसे फैलायें
हमारी कातर आँखे भी
क्रोध में जल सकती है
हमारी दरिद्र वाणी भी
शेर की दहाड़ जैसी बन सकती है
पर अभी नहीं
सही समय आने पर
खींचा जायेगा उनका भी फंदा
जिन्होंने उम्र भर केक-पेस्ट्री खाई
दूसरों को हर वक्त आँखें दिखाईं
अपनी जाति, वर्ग के दंभ के आगे
दूसरों की कोई बात नहीं सुहाई
अभी तो इंतजार है
कुछ आग और इकट्ठी कर लें
अपने सीने में
कुछ और दम भर लें
लड़ेंगे हम भी अखाड़े में
पीठ दिखाकर नहीं भागेंगे बाड़े से
बहेगा लहू चाहे
चिथड़ा-चिथड़ा हो चाहे रुंड-मंड
गर्व से ये सिर ऊँचा रहेगा
ऊपर वाले को जवाब देना है
सिवाय उसके
किसी और के आगे ये ना झुकेगा।