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तुम्हारे ही लिए तो / रणजीत
Kavita Kosh से
तुम जो मेरे सपनों में घिर-घिर आती हो
तुम जो मेरी संज्ञा में तिर-तिर जाती हो
तुम जो मेरे सून-सबेरे साधों से भर जाती हो
तुम जो मेरी रीती रातों में चन्दा धर जाती हो
मैं तुम्हारे ही लिए तो लिख रहा हूँ।
तुम जो रस्मों के बुर्के में बंद खड़ी हो
तुम जो नैतिक बाँधों में निस्पंद पड़ी हो
तुम जो अपनी दासता को
धर्म समझे सह रही हो
तुम जो अपने ही हनन को
त्याग भ्रम से कह रही हो
मैं तुम्हारे ही लिए तो लिख रहा हूँ।