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तुम्हीं हो क्या वह / अज्ञेय
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तुम्हीं हो क्या वह-
प्रोज्ज्वल रेखाओं में चित्रित ज्वाला एक अँधेरी-
पीड़ा की छाया हो मानो आशाओं ने घेरी?
सारस-गति से चली जा रहीं
मौन रात्रि में, नीरव गति से, दीपों की माला के आगे!
क्षण-भर बुझे दीप, फिर मानो पागल से हो जागे!
मानो पल-भर सुध बिसरा कर
पुलक-विकल हो तिमिर-शिखा पर अपना सब आलोक लुटा कर
हो कर निर्वृत,
चेत उठे हों,
नव जीवन में- पर जीवन भी कैसा? व्यथा एक हो विस्तृत-
विकल वेदना एक प्रकम्पित!
मुलतान जेल, 18 अक्टूबर, 1933