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तुम्ही त्रिलोचन / भारतेन्दु मिश्र

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जैसे तुमने देखा था नगई को बटते
शब्दों की रस्सियाँ बटी हैं ,देखा मैंने
जिनमे कितनी अर्थमयी किरणें लिपटी हैं
रस्सी में हैं तीन लरें व्यंजना सरीखी
साधे हो सत-रज तम को तुम एक साथ ही
चम्पा, भोरई, फेरू सबको लिए साथ हो
घिसते रहे अमोला बरसों और बजाते रहे पिपिहरी
तोल न पाता हूँ भाषा की लहरें जिन पर तुम चलते थे
सहज भाव से कह सकता हूँ कविता लिखना
रस्सी बटना है किसान की तीन पलों में
रस्सी में हैं सन के विरल तन्तु लय -सम्वेदन के
उलझे-सुलझे, बैठे-ठाढ़े जगा रहे हो, सिखा रहे हो
करती है सच्ची कविता ही दुख का मोचन
लोचन उघाड़ने वाले हो, बस, तुम्ही त्रिलोचन ।