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तुम्हें इतना बुरा क्यों लगा? / महेश सन्तोषी

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तुम्हें इतना बुरा क्यों लगा
मेरा पेट की खातिर शरीर बेचना?
अगर मैं कहीं भूख से मर जाती
तो क्या तुम मौत से कर देते मना?

जिस समाज का एक हिस्सा हूँ मैं
यहाँ जिस्म को कई हिस्सों में जीती है औरत
एक मुश्त मैं तुम्हें बता नहीं सकूंगी
मौत से कितनी किश्तों में गुजरती है औरत।

जिस घर से मैं जुड़ी हूँ, वहाँ अभाव भी है
बेकारी भी।
बेकारी भी,
एक छोटी बहन भी है मेरी,
एक भाई भी है, एक अभागी माँ भी,
इन सबकी रोटियों की जिम्मेदारियाँ भी हैं मेरे सर पर।
तुम मुझे प्यार का एक घर दे सकते हो
पर, क्या दे सकते हो इन्हें रोटियों का एक घर?

एक झूठ मुझ से रह गई अनकही,
एक सत्य तुमसे रह गया अनदेखा
तुमने मेरी हथेलियाँ चूमीं तो,
पर प्राणों में झाँक कर कहाँ देखा?
ना मैं पावन हूँ, ना मैं पतिता
ना मैं उर्वशी हूँ, ना मैं सीता
मैं बस एक औरत हूँ,
ना किसी की पूजा, ना परिणीता।
सिर्फ एक शरीर हूँ मैं
जिसकी न कोई आत्मा है ना अस्मिता।
क्या तुममें इतना साहस है
जो मुझे दे सको सिन्दूर की एक सम्मानित रेखा?

तुम्हारी सम्वेदना से कद में बहुत बड़ी है मेरी वेदनाएँ।
उन दुखती हुई रगों को तुमने छुआ ही कहाँ
जहाँ से शुरू हुई थी मेरी पीड़ाओं की सीमाएँ।

एक पगडण्डी भी कहीं नहीं है
जो मुझे आगे ले जाती
इन दर्द के चौराहों से।
बड़े टेड़े-मेड़े रास्ते हैं पेट के
गरीबी के, अभावों के।
उम्र के साथ-साथ अगर
तुम्हारी दया भी मुझे ढोना है
मैं एक ऐसे प्यार का क्या करूँगी
जो जन्म से ही इतना बौना है?