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तुम्हें ऊब नहीं होती कभी? / नीता पोरवाल
Kavita Kosh से
सुनते हुए भी
तुम अनसुना कर देते हो अक्सर
मेरे अल्फाज़
अनझिप आँखों से
नापता रहते हो होठो से सरकते
हर एक हर्फ
चुप्पी ओढ़ इंतजार करते हो ज्यों
शक्लें अख्तियार करते लफ़्ज़ों में
अपने अनगिनत सवालों के जवाब
और मन मुताबिक तवज्ज़ो न मिलने पर
फितरत से मजबूर झुंझला कर
कर देते हो उन्हें कतरनों में तब्दील
बखूबी अंदाजा था मुझे
अपने दायरे में सिमटे एक कारीगर के सिवाय
तुम और कुछ भी नहीं
अफ़सोस जिसे तराशने के नाम पर
आता है सिर्फ़ रेशमी दोशाले में सुइयाँ चुभोना
सहेजने का उसे सलीका ही नहीं
पर दिन ओ रात
इस एक ही आदत के साथ जिंदगी गुजारते
तुम्हे ऊब नहीं होती कभी?