तुम्हें कामरेड / धूर्जटि चटोपाध्याय / कंचन कुमार
हिमालय से मालाबार तक
तुम्हारा शरीर
सारा मानचित्र घेरकर
लेटा हुआ है कामरेड ।
जेलख़ाने के अन्दर
तुम सोचते थे —
एक ही इस्पात से
कैसे बनती है
लोहे की ज़ंजीर, पाँच की बेड़ी,
धान काटने का हंसुआ
और
आग बरसाने वाली खूँखार रायफ़ल।
सोचते थे —
कल यह जेलख़ाना टूटेगा और
उसी जगह खड़ी होगी
बेघरों की बस्ती ।
सोचा था —
तुम अब नहीं जागोगे।
मगर
आज जहाँ भी जाता हूँ
थके हुए लाइनशफ़्ट के नीचे
चटकल की स्पिर्निंग-मशीन की बग़ल में
धान के खेत की कीचड़ में
मैं देखता हूँ
तुम पहरा दे रहे हो
ताकि कोई सूत्र न खो दे ।
इंजन की गर्जन में सुनता हूँ
तुम्हारे कण्ठ-स्वर
की आवाज़
तुम्हारी साँस
और
जँगल के अन्धकार में
थके हुए लकड़हारों की छावनी के ऊपर
लम्बे बेदमजनू की शाखा देखते ही
लगता है
तुम खड़े हो पहरे पर ।
मानो कह रहे हो —
विजय हमारी होगी ही ।
1975
मूल बांग्ला से अनुवाद : कंचन कुमार