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तुम्हें क्या मिला गौतम? / संजय तिवारी

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सच बताना
गौतम से बुद्ध बन कर भी
क्या मिला?
क्या खो कर? कितना पा सके तुम?
सच बताना
मन तो नहीं करता
फिर भी कहती हूँ
प्रिये
सच बताना
क्यों गए थे?
कि
सृष्टि का प्रवाह रुक सके?
कि
वेदना की आह रुक सके?
कि
जीवन का संवाद रुक सके?
क्या
रोक सके तुम कुछ भी?
न तो सृष्टि रुकी
और ना ही रुका कोई संवाद
रुकी तो
सिर्फ
मेरी जिंदगी
और
बढ़ गयी
मेरी संत्रास
तुम तो पलायन के प्रतीक बन गए नाथ
मैं पापिन बन गयी
और अकेला हो गया
तुम्हारा पुत्र
यह कौन सी विधा है?
कैसी तृष्णा है?
किसके काम आये तुम?
मुझे त्याग
अपनाया भी तो उसे
जो
खुद में थी अभिशप्त
अपने सौंदर्य और देहयष्टि से
राज्य ने बना दिया था
नगर वधू?
आखिर मुझ पतिव्रता में क्या कमी थी?
सच बोलना
 तुम्हें क्या मिला?