भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम्हें ग़मों का समझना अगर न आएगा / वसीम बरेलवी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम्हें ग़मों का समझना अगर न आएगा
तो मेरी आँख में आँसू नज़र न आएगा

ये ज़िंदगी का मुसाफ़िर ये बे-वफ़ा लम्हा
चला गया तो कभी लौट कर न आएगा

बनेंगे ऊँचे मकानों में बैठ कर नक़्शे
तो अपने हिस्से में मिट्टी का घर न आएगा

मना रहे हैं बहुत दिन से जश्न-ए-तिश्ना-लबी
हमें पता था ये बादल इधर न आएगा

लगेगी आग तो सम्त-ए-सफ़र न देखेगी
मकान शहर में कोई नज़र न आएगा

'वसीम' अपने अँधेरों का ख़ुद इलाज करो
कोई चराग़ जलाने इधर न आएगा।