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तुम्हें देख नहीं पाता तो अनुभूति होती / रवीन्द्रनाथ ठाकुर
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तुम्हें देख नहीं पाता तो अनुभूति होती ऐसी कुछ आर्त कलपना में,
पाँव तले पृथिवी आज चुपचाप कर रही गुप्त मन्त्रणा-
स्थानच्युत होगी वह, हट जायगी है जहां से।
दृढ़ता पकड़ना चाहता मन उत्कण्ठत हो आकाश को
ऊपर उठा के हाथ दोनों बाँह से।
चौंक उठता अचानक ही, स्वप्न जाता टूट मेरा;
देखूं तो, मस्तक झुकाये तुम कर रहीं बुनाई कुछ बैठी-बैठी सामने,
करके समर्थन तुम मानो कह रही हो, ‘अमोघ है शान्ति सृष्टि की।
‘उदयन’
प्रभात: 4 दिसम्बर, 1940