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तुम्हें नहीं भूला हूँ / रामइकबाल सिंह 'राकेश'

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खिंच जाता आँखों में तुम्हारा चित्र
आ जाती संध्या ललाई लिए
तिमिर की साड़ी पर सितारे जब
जड़ देती पूनों की चाँदनी चूने की पुताई-सी
गगन के महार्णव को धवलित कर

रहता तुम्हारे साथ होकर अवियुक्त मन
रजनी के आनन को पोत कर
तूलिका से मंजीठी किरणों की
उदयगिरि-शिखर पर भाल-तिलक प्राची का
हल्दी छिड़कता, लाल कुंकुम उड़ाता जब
हृदय को सालती है हूल-सी तुम्हारी याद
तरशे हुए फूलों की अधर रेखाओं पर
लिख देती ओस की बूँदें जब अन्तर निचोड़ कर
मर्मान्तक देना को मोती के छन्दों में।

करता तुम्हारा ध्यान मेरा मन
दुर्गम गिरिकारा को तोड़ कर सरिता जब,
बूँद में छिपाए हुए सागर को
छन्दों में पृथक-पृथक, बलखाती-
जीवन से करती प्रवेश महाजीवन में
पग-पग पर क्षुद्र से वृहत्तम में
प्राण की धारा से करुणा प्रवाहित कर
धरती की मृत्तिका को धन्य कर।

सहसा तुम्हारी याद भर देती मन को तरंग से
मँडराते उड़ते जब एक साथ जोड़ों में-
‘किर-किर-किर’ बोल कर डूमर या गुलाबसर,
गोलाकार घूमकर
भीगे हुए पिलछौंह पंखों को झाड़ कर
बादामी हल्की सफेदी लिए कण्ठ पर
भरते स्वर-तान से दलदली तलैयों पर जल-तट को।

मदाकुल मत्त बन मेरा मन
करता तुम्हारा मकरन्द-पान अपने को धन्य मान
राग से भरी-सी मत्त हुई हवा मधुमास की
गान के बाद गान गाती-सी
प्रेम की दुहाई देती, लहराती लटों कों
लहर के हिण्डोले में खाती झकोले जब
बँधी हुई सुर में असीम के
भौंरी-सी मँडराती कहती है बार-बार
मिलन की वाणी में चम्पा की कलियों से
‘रख नहीं सकतीं तुम शृंखला में बाँध कर
निबिडतम गुंठन मंे जकड़ कर,
राग उन्मादमयी संचित सुगन्ध को
व्यक्त करो अपने को, अपने देवत्व को
मेरे आह्वान पर मन्द मुस्कान से-
दान दो सुगन्ध का, देती रहो।
खोल दो कहे बिना अन्तर के दलों को,
मदिरा-सी मदमयी सुरभित पंखुड़ियों को।’