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तुम्हें पराया मान न पाये यह अपराध किया / रंजना वर्मा
Kavita Kosh से
ऊबड़ खाबड़ पथ जीवन का पग-पग साथ दिया।
तुम्हें पराया मान न पाये यह अपराध किया॥
पीड़ा के घन नयन गगन में
हैं जब-जब घिरते,
इंद्रधनुष से सपने दीवाने
दृग में तिरते।
साँस साँस कस्तूरी महके
केसर कंचन तन,
अभिलाषाओं के पंछी
अम्बर उड़ते फिरते।
मन का तुरग स्वयं प्रिय की यादों से बाँध दिया।
तुम्हें पराया मान न पाये यह अपराध किया॥
हमने तुम्हें दिया अपनापन
हम ही हुए पराये।
बिना विदाई विदा हुए जो
दिन क्यों लौट न आये।
बरसों पहले खोया जिसको
कब से ढूँढ रहे हैं,
बेदर्दी उम्मीद न जाने
अब कितना भटकाये।
अड़ियल टट्टू से मन को है अब तो साध लिया।
तुम्हें पराया मान न पाये यह अपराध किया॥