भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तुम्हें बाँध पाती सपने में! / महादेवी वर्मा
Kavita Kosh से
तुम्हें बाँध पाती सपने में!
तो चिरजीवन-प्यास बुझा
लेती उस छोटे क्षण अपने में!
पावस-घन सी उमड़ बिखरती,
शरद-दिशा सी नीरव घिरती,
धो लेती जग का विषाद
ढुलते लघु आँसू-कण अपने में!
मधुर राग बन विश्व सुलाती
सौरभ बन कण कण बस जाती,
भरती मैं संसृति का क्रन्दन
हँस जर्जर जीवन अपने में!
सब की सीमा बन सागर सी,
हो असीम आलोक-लहर सी,
तारोंमय आकाश छिपा
रखती चंचल तारक अपने में!
शाप मुझे बन जाता वर सा,
पतझर मधु का मास अजर सा,
रचती कितने स्वर्ग एक
लघु प्राणों के स्पन्दन अपने में!
साँसें कहती अमर कहानी,
पल पल बनता अमिट निशानी,
प्रिय! मैं लेती बाँध मुक्ति
सौ सौ, लघुपत बन्धन अपने में!
तुम्हें बाँध पाती सपने में!