तुम्हें माँग सकता हूँ फिर से / गणेश पाण्डेय
न तुम्हारा अटाला दूर है
और न मैं उन रास्तों से
अनजान
बस कोई मोड़ आ गया है
जिसे फान्दकर
क्या मैं आ सकता हूँ
फिर से
तुम्हारी दहलीज़ पर
जानता हूँ
मैं तुम्हारी आत्मा का द्वार
और अपूर्व देह का चप्पा-चप्पा
अब उसे
छू सकता हूँ क्या कभी
तुम्हारी आँखों के एकान्त में
दिन तो दिन
रात के अन्तिम पहर में
नज़र बचाकर
आ सकता हूँ क्या कभी
मीठे सन्तरे की फाँक
और गुलाब की पँखुड़ियों जैसे
होंठों पर
अपना खुरदुरा नाम
लिख सकता हूँ क्या कभी
रेशम जैसी बाँहों के फन्दे में
झूल सकता हूँ फिर कभी
चान्द तारों से सजी
तुम्हारी साड़ी की खूँट में
अपनी डबडब आँखें
बान्ध सकता हूं क्या कभी
तुम्हारी सांसों के आसपास
सांस ले सकता हूँ
फिर कभी
जीवन अपनी इच्छा से
जी सकता हूँ
अब कभी
कुछ दिनों के लिए
समय देवता से
तुम्हें
फिर से माँग सकता हूँ
क्या कभी।