तुम्हें याद है नवम्बर की, वो गुनगुनी दोपहर / कपिल भारद्वाज
तुम्हें याद है नवम्बर की, वो गुनगुनी दोपहर,
रोज गार्डन में बैठ,
जार-जार रोई थी तुम,
मेरी बेरुखी से परेशान होकर,
पिछले दो दिन से ब्लॉक किया हुआ था मैंने तुम्हें !
रोना कितना मधुर होता है,
उस दिन जाना था मैंने,
अपने गुलाबी रुमाल से तेरे आंसू पोंछते हुऐ,
एक मीठी गुदगुदी हो रही थी,
दिल कर रहा था ऐसे ही अनन्त काल तक, तेरा रोना देखता रहूं !
पर तुम भी तो बहुत चालाक थी,
समझ गयी मेरे दिल का भेद,
और गालों पर आंसू सूखने से पहले ही, ठठाकर हंसने लगी थी,
दुनियाभर की बातों का पिटारा खोल दिया था तुमने,
मेरे कंधे पर सिर टिकाकर, या गाल पर हल्की चपत लगाते हुऐ!
मगर कोई इंटरेस्ट नहीं था मेरा,
उन बेस्वाद राम कहानियों में,
मेरी तो बस एक ही इच्छा थी,
कि तू छिक कर रोये और मैं,
अपने गुलाबी रुमाल में समा लूं तुम्हारें आंसुओ को !