तुम्हें याद है न / कर्णसिंह चौहान
शहर जब गर्म था
अफवाहों से
हम घर से भाग आए थे
बाग की कानाफूसी में
सत्ता के परखचे उड़ाये थे
उस हंसी की आड़ में
बनाई थी लंबी सुरंग
बेधड़क
सीमा के पार निकल आए थे ।
तुम्हें याद है न !
वहीं पाताल से जा रही थी
एक छोटी रेल
आकाश की ओर
संघर्ष छिड़ा था डिब्बे में
स्वर्ग और धरती के बीच
निगाहें बचाकर हम
एक पुस्तकालय में घुस गए
वहां बाइबल और गीता थी
ईसा और कृष्ण
भीड़ के हाथ में
पन्ने और भाले थे
उनके दुशालों में छिपे हम
बादलों तक पहुंचे थे ।
तुम्हें याद है न !
वहां इन्द्र था
भाप से ढका था सरोवर
उसमें होता एक सवेरा था
किरणों में चमकती मछलियां
और जल में ढके शैवाल
न कुछ तेरा था न मेरा था ।
पहाड़ी नदी के किनारे
लातीन में
कोई गीतांजलि गुनगुना रहा था
उस गुफा का संतरी
अंतिम खेप के लिए बुला रहा था
वहां अंधेरे में चमकते खंजरों को
अपने में उतार
कितने लहूलुहान हो गए थे ।
तुम्हें याद है न !
उस मोड़ पर खड़ी बुढ़िया
दर्द की हंसी बन गई
श्रापग्रस्त जंगल
पुराने ग्रीक हीरो की कथा में
अट्टहास कर
उदास हो गया ।
देवास ही नाम था न उसका
जहां दिल ने पंख फड़फड़ाये
वहां था खुला आकाश
देवी का मंदिर
और बलखाती सड़क
फरिस्तों की धकापेल
जंगल गुंजाकर
नंगे पैर भाग आए थे ।
तुम्हें याद है न !
वहीं से शुरु हुआ
गुफा का अंधेरा द्वार
चमकते हीरों पर पहरा देता
काला नाग
कितना उजास था निमंत्रण
कितना तत्पर था तन-मन
उस दैत्य ने
कितना छकाया हमें ।
तुम्हें याद है न !
धू-धूकर जल उठे
क्रिसमस के पेड़
नीला सागर
उसी में कहीं था
बेलग्राद का मोर्चा
तुम्हारे मेजर पिता का चेहरा
कफन के बाहर
एक शून्य का रेगिस्तान था हमारे बीच
गिरजे की दीवार
बर्फ की परतें
खामोशी के मौन में
अचकचाए रुके थे हम ।
तुम्हें याद है न !