तुम्हें ही कहाँ मालूम था / अशोक तिवारी
तुम्हें ही कहाँ मालूम था
आसमान झुककर लेने लगेगा
ज़मीन की टोह
सूरज पिघलकर
फैल जाएगा तालाब में
मोम की तरह ......
दौड़ने लगेंगे पंछी-परिंदे
एक ही दिशा में
और तुम भीड़ भरे रास्तों पर
हो जाओगी निपट तनहा
तुम्हें ही कहाँ मालूम था
तुम्हें ही कहाँ मालूम था
कि चली जाओगी
इतनी जल्दी
अनकही रह जाएँगी
बहुत-सी दास्तान
बहुत-से अफ़सानों कि स्क्रिप्ट
रह जाएगी अधूरी कि अधूरी
कि नहीं दे पाओगी
उन लमहों का लेखा-जोखा
बिताए थे जो तुमने सालों-साल
घुप अँधेरे में
अनजान सायों के बीच
नहीं बन पाओगी कोई शिनाख्त
अँधेरे वक़्त के ख़िलाफ़
शो शुरू होने से पहले
रिहर्सल के आख़िरी लम्हों में
कट हो जाएगा
तुम्हारा ही रोल नाटक से
तुम्हें ही कहाँ मालूम था
नाटक का पर्दा
अभी उठ भी नहीं पाएगा
कि एक हूक थाम लेगी
तुम्हें कसकर
और तुम चेहरों को पहचानने से पहले ही
हो जाओगी ग़ायब पूरे परिदृश्य से
तुम्हें ही कहाँ मालूम था
कि ज़िंदगी नहीं देगी इतनी मोहलत
कि सिमटती हवाओं में दर्ज
साँसों का हिसाब
थम जाएगा यूँ ही अचानक
ख़ामोशी के पल
हो जाएँगे इतने मनहूस
कि दूसरों के आँसुओं के दरिया में
बहने लगेगी तुम्हारी अपनी ही लाश
तुम्हें ही कहाँ मालूम था
कि रिश्तों का खोखला बंधन
बन जाएगा
तुम्हारी ही जान का फंदा
और तुम सबके बीच से
हो जाओगी अनुपस्थित
हमेशा-हमेशा के लिए
माँ को खो देने का दर्द
देखोगी
अपने बच्चों के
बिलखते चेहरों पर
जब देखोगी उस मनहूस पंजे को
जो तुम्हारे कलेजे के टुकड़ों को
तुमसे छीनकर पटक देगा
दूर...कहीं दूर....
सुरक्षा के नाम पर
और तुम निस्तेज
फटी आँखों और खुले मुँह
देखती रहोगी उसे ये सब करते हुए
जिससे लड़ती रहीं तुम
ज़िंदगी के इस मोड़ तक
अब तक....
तुम्हें ही कहाँ मालूम था
तुम्हें ही कहाँ मालूम था
कि शिराओं में बहने वाले
ख़ून का मामूली-सा दवाब
साबित होगा ज़िंदगी की आखिरी घड़ी
और दूसरों को मदद पहुँचाने वाले हाथ
थाम नहीं पाएँगे जब
एक ओर लुढ़कती अपनी ही गर्दन को
पसरे पड़े होंगे दूसरों के सामने
मदद की गुहार के लिए......
तुम्हारी ही प्रतिमा
तुम्हारी परछाई
रखते हुए अपने दिल पर
भारी पहाड़
विदा देगी तुम्हें
एक दिन यूँ सहलाकर....
तुम्हें ही कहाँ मालूम था
29 /11/2010
(दिनेश के लिए जो आख़िरी लम्हों तक संघर्ष में विश्वास रखती थी।)