भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम्हे लगता है / किशोर काबरा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम्हे लगता है
बड़े सवेरे
चिड़िया गीत गाकर
शायद खुश हो रही है
तुम्हे क्या पता
वह इस बहाने
अपना कोई दुखड़ा रो रही है।

तुम्हे लगता है
भरी दोपहरी में
पेड़ के नीचे
छाया
शायद आराम से लेटी है
तुम्हे क्या पता
वह सूरज के डर से वहाँ छिपी बैठी है।

तुम्हे लगता है
आधी रात को पूनम
चांदनी में नहा नहाकर शायद
बाली हो रही है
तुम्हे क्या पता
इसी दुख में अमावस
साँवली हो रही है।

अब तलक हम देखते रहे हैं
दूसरों को अपनी नजर से।
क्यों न हम अब उन्हें देखे
अपनी नजर से।