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तुम अपनी असमोर्ध्व / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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तुम अपनी असमोर्ध्व, अतुल महिमामें करते नित्य निवास।
कौन तुम्हें पा सकता, प्यारे! कौन पहुँच सकता है पास॥
क्या देकर तुमको, कैसे है को‌ई दे सकता आह्लाद।
स्वयं अमित आह्लाद-सुधा-निधि, स्वयं सदा आस्वादन-स्वाद॥
स्वयं नित्य रस तुम स्वरूपतः, पर रस-लोभी मधुर महान।
रस-वितरण कर, रस विस्तृत कर, स्वयं नित्य करते रस-पान॥
अपना ही रस दे मुझको कर रखा तुमने ही रस-मा।
करते तुम्हीं पान रस अविरत, रहते नित्य तृषित, उन्माद॥
देख अलखकी यह अद्‌‌भुत रस-लिप्सा मैं होती हैरान।
कैसे भूल रहे तुम अपनी सान-भगवान, भगवान!
जब तुम देख मुझे हो जाते विह्वल, चचल-चित, विमुग्ध।
बहने लगता तब अजस्र धारा बन अति अनुराग विशुद्ध॥
रहता नहीं तुम्हें अपना तब तन-मनका कुछ भी संधान।
होता एकाकार सभी कुछ, रहता तनिक नहीं व्यवधान॥
रह जाता तथापि अतल-स्पर्शी प्रियतम के सुख का भान।
तुम ही सहज देखते, करते मेरे सुखका नित्य विधान॥
नीच-‌उच्च, अणु-तुच्छ-महत्‌ ‌का रहता नहीं कदापि विचार।
मेरे तुम स्वरूप बन जाते, मैं बन जाती तुम साकार॥
(अथवा)
(बन जाते स्वरूप दोनोंके, दोनों तज निज-निज आकार)॥
कौन कहे कैसा रस-‌अनुभव, कैसा अनिर्वाच्य आनन्द।
प्रेम बना आनन्द नाचता, बना प्रेम आनँद स्वच्छन्द॥