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तुम अब भी मौजूद हो / पल्लवी विनोद
Kavita Kosh से
तुम्हारे जाने के बाद मैंने हर उस जगह को धोया
जहाँ चिपके थे तुम्हारी स्मृतियों के अंश
लेकिन लगता है कुछ रह गया है
जो छूटता ही नहीं
जिस पर कोई और रंग नहीं चढ़ पाता
जनम के साथ
शरीर पर उभरे निशान की तरह
तुम, अब भी मौजूद हो।
जैसे प्रेमपत्रों की स्याही धुलने के बाद भी
बची रहती है लिखावट
जैसे भौतिकता, आध्यात्मिकता के लिबास में भी
नक़ली ही प्रतीत होती है
जैसे साँस के रुकने के बाद भी
भ्रम बना रहता है अपनों के होने का
उसी भरम सा
तुम, अब भी मौजूद हो।
देखो बारिश का मौसम फिर आ गया है
गीली छत पर सिगरेट की ख़ुशबू
और कहीं दूर स्पीकर पर बजता तराना
अब मेरी किसी प्रतीक्षा में तुम नहीं हो
किसी उम्मीद में भी नहीं
फिर भी इन बूंदों के साथ मुझको भिगोते
तुम, अब भी मौजूद हो।