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तुम अमर, मैं नश्वर / तारा सिंह

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तुम अमर, मैं नश्वर

प्रिये! विजन नीर में, चौंक अचानक
जब भी मैं नींद से, उठ बैठता जाग
देखता, तुम गहन कानन के तरुतम में
अपने दो नयनों का विरह दीप जलाये
व्यग्र, व्याकुल घूम रही हो चुपचाप

इंगित कर तरुओं का पात
पूछ रही हो, डाली से,
हे! मृगमद के सौरभ सम सुरभित
नव पल्लवित तमाल
तुममें ऐसी क्या है बात

जो जीवन के दुर्गम पथ पर
चलते-चलते मनुज जब थक जाता
जगती के इस छोर से उस छोर तक
सुनता नहीं कोई उसकी पुकार
तब वह विवश लाचार, तुममें आकर
छुप जाता, मिल तुममें हो जाता एकाकर

हर तरफ़ गहराया यह रूप तुम्हारा
जिसमें तिल-तिलकर डूब रहा संसार
बढ़ती जा रही तुम्हारी आयु का
राशि-राशि कर हो रहा यौवन विस्तार
क्यों आता नहीं बुढ़ापा तुम्हारा,क्यों पड़ती
नहीं कभी ढ़ीली, जवानी की तार

मुझको देखो, कभी स्वर्ण आभरण युक्त
कल्पना से भी कोमल थे, मेरे ये दो हाथ
गाठें हैं पड़ी हुईं इनमें आज, सुडौल
ग्रीवा, जो कभी त्रिभुवन के हर दुख को
फ़ूलों सी उठाये घूमती थी
आज उठा नहीं पा रही ,एक वृद्धाभार

हुक सी मेरे हृदय को
बींध जाती यह बात
जिस सृष्टि ने तुमको गढ़ा
उसी ने मुझे भी बनाया
फ़िर मुझमें, तुममें क्यों
भेद इतना बड़ा
मैं चिर नश्वर, तुम चिर अमर
मैं चिर कुरूप, तुम चिर सुंदर