भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम आए, तुम चले गए / अज्ञेय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 तुम आये, तुम चले गये! नाता जोड़ा था, तोड़ गये।
हे अबाध! जाते अबाध सूनापन मुझ को छोड़ गये।
अशुभ विषैली छायाओं से, अब मैं जीवन भरता हूँ-
नीच अजान नहीं हूँ, प्रियतम! सूनेपन से डरता हूँ!

मुलतान जेल, 5 दिसम्बर, 1933