भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम आओ तो / विजय कुमार पंत

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम आओ तो
इतनी निष्ठुर रातें है
इन्हें जगाओ तो
तुम आओ तो
अंधेरों के भी अर्थ समझने थे मुझको
मेरी जिज्ञासाओं को पंख लगाओ तो
तुम आओ तो...
निस्तब्ध निशा में शब्दहीन अभिमन्त्रण से
मन के मंदिर मैं अगणित दीप जलाओ तो
तुम आओ तो...
पूर्वाग्रह से है ग्रसित सुबह कबसे मेरी
एक अंतहीन अभिलाषा उसे बनाओ तो
तुम आओ तो....
एकांत कभी तो सुखकर होता ही होगा
इसमें भी आकर गुपचुप सेंध लगाओ तो
तुम आओ तो ...
बोझिल उनीदीं आंखे क्यों है खुली हुई
बन स्वपन समय का ही आभास
कराओ तो
तुम आओ तो...
छोडो भी वहम अगर दुनिया को होता है...
तुम हो, इतना सा ही संकेत दिखाओ तो
तुम आओ तो...