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तुम आओ भी / निवेदिता
Kavita Kosh से
घने कोहरे से लिपटी शाम की नीली आभा में
ओस की नन्हीं बूदें चमकती हैं
शाखों पर
पत्तियां जो हरी थी
बूंदों से भर गयी है
झर रहे हैं कनेर के फूल
तुम्हारी हंसी की तरह
भर लेना चाहती हूँ सांसों में
गर्म, पिघलती हंसी
फैल रही है रात कतरा-कतरा
मेरी बंजर भूमि में
खिल आए हैं गुलाब के फूल
तुम्हारी देह मेरी आत्मा में गुथीं हुई
उत्तेजित चक्रवात की तरह
घुमड़ती रहती है
मैं चाहती हूं सुनो तुम
वे गीत जो गाए नहीं गए
वे गीत जो रचे नहीं गए
वो प्रेम जो पुरानी राहों में
बिछा रह गया
वो एकान्त जो धधकता रहा
प्यार करो मुझे
मुझमें डूब जाओ
कि मेरी आत्मा पर हो बारिश
शीत और आग के बीच
मैं खिलाऊँ जीवन के फूल