तुम आग पर चलो / गोपाल सिंह नेपाली
तुम आग पर चलो जवान, आग पर चलो
तुम आग पर चलो
1)
अब वह घड़ी गई कि थी भरी वसुंधरा
वह घड़ी गई कि शांति-गोद थी धरा
जिस ओर देखते न दीखता हरा-भरा
चंहु ओर आसमान में घना धुआँ उठा
तुम आग पर चलो जवान, आग पर चलो
तुम आग पर चलो
2)
लाली न फूल की, वसन्त का गुलाल है
यह सूर्य है नहीं प्रचंड अग्नि ज्वाल है
यह आग से उठी मलिन मेघ-माल है
लो, जल रही जहाँ में नई जवानियाँ
तुम ज्वाल में जलो किशोर, ज्वाल में जलो
तुम आग पर चलो
3)
अब तो समाज की नवीन धरना बनी
है लुट रहे गरीब और लूटते धनी
संपति हो समाज के न खून से सनी
यह आँच लग रही मनुष्य के शरीर को
तुम आँच में ढलो नवीन, आँच में ढलो
तुम आँच में ढलो
4)
अम्बर एक ओर एक ओर झोलियाँ
संसार एक ओर एक ओर टोलियाँ
मनुहार एक ओर एक ओर गोलियाँ
इस आज के विभेद पर जहीन रो रहा
तुम अश्रु में पलो कुमार, अश्रु में पलो
तुम अश्रु में पलो
5)
तुम हो गुलाब तो जहान को सुवास दो
तुम हो प्रदीप अंधकार में प्रकाश दो
कुछ दे नहीं सको, सहानुभूति-आस दो
निज होंठ की हँसी लुटा, दुखी मनुष्य का
तुम अश्रु पोंछ लो उदार, अश्रु पोंछ लो
तुम अश्रु पोंछ लो
6)
मुस्कान ही नहीं, कपोल अश्रु भी हँसे
ये हँस रही अटारियाँ, कुटीर भी हँसे
क्यों भारतीय दृष्टि में न गाँव ही बसे
जलते प्रदीप एक साथ एक पाँति से
तुम भी हिलो-मिलो मनुष्य, तुम हिलो-मिलो
तुम भी हिलो-मिलो