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तुम आयी / आलोक श्रीवास्तव-२
Kavita Kosh से
प्राचीन जंगलों से होकर गुजरती
हवा की तरह था
तुम्हारा आना
झरनों के शोर की तरह थी
तुम्हारी हंसी
ख़ामोश पानी की तरह परछाईयों का
इंतजार करती थीं
तुम्हारी आँखें
रात
रात की तरह थे
अंधियाला लिए
तुम्हारे केश
बेचैन हिरने की तरह
तुम आईं चपल पैरों
जलते पठार, हरे मैदान तय करतीं
मुक्त
मुक्त हंसी, मुक्त आँखें
समूची प्रकृति से संगत करतीं
उन्मुक्त तुम्हारी काया
सब
स्वप्न सरीखे थे
एक छ्तनार पेड़ की तरह थी
तुम्हारी दुनिया
अपनी जद की धरती पर
पत्तों की अल्पना रचती
स्वागत करती धूप का, किरनों का ।