लख सुलग रही भारत मा की
यह शस्य-ष्यामला गोद हरी
‘यमुना’ के दृग भीगे-भीगे
‘गंगा’ की आँखें भरी-भरी
हो जाते सप्त-सिंधु रीते
जब बूँद-बूँद कर नीर झरे
तब इन अनगिनत आँसुओं से
गंगा की गोदी क्यों न भरे
इन कूल-किनारों की फैली,
बाँहों के बंधन तोड़-फोड़
बन गयी विपथगा दुख-कातर
प्रिय सिंधु-मिलन का मोह छोड़
पाटलीपुत्र में डोल रही
‘गौतम-अषोक’ की याद लिये
काषी में ‘षिव’ की ओर चली
रो-रो अपनी फरियाद लिये
फरियाद कि ‘‘पावन रहा सदा-
जो मेरे उर का सोता है
उसमें ही पापी मानव-
अपनी तलवारें धोता है
तलवारें-जिनसे कोटि-कोटि
मासूम हुए टुकड़े-टुकड़े
तलवारें-जिनपर बहनों के-
स्तन-षोणित के चिह्न पड़े
तलवारें-चाट गयीं जो इन
लाखों ललनाओं का सुहाग
तलवारें-बुझा रहीं अनगिनत-
कुटीरों के टिमटिम चिराग
तलवारें-जो खुल खेल रहीं-
दुखिया धरती पर रक्त-फाग
तलवारें-प्रतिपल उगल रहीं-
जो महानाष की अनय-आग’’
सदियों से रूके हुए आँसू-
बिखरे हैं बन्धन-बाँध तोड़
है पूछ रही ‘गंगा’ दीवारों-
से अपना सिर फोड़-फोड़
‘‘अब कब तक और बहायेगा
मानव ! लोहू की धार, बोल
ओ क्रूर-कुटिल ‘रजवी’ कब तक
तू फेंकेगा अंगार, बोल
रे देख जल रही है धरती
तप रहा आँच से आसमान
तेरे फेंके अंगारों से
धू-धू कर जलता है ‘कुरान’
अल्लाह भर रहा है आहें
‘मक्काषरीफ’ चिल्लाता है
‘जन्नत’ कुहराम मचाती है
‘दोजख’ आवाज लगाता है
ओ अधम लुटेरे ! तू न भूल-
जीवित प्रताप के बेटे हैं
ये वीर ‘षिवा’ के लाल भाल-
से रहते कफन लपेटे हैं
तेरी काली करतूतों से
इस्लाम किये सर नीचा है
तूने अपने मजहब की जड़-
को अंगारों से सींचा है
रे संभल, अभी इन ‘बुंदेलों’-
का रक्त खौलने वाला है
इन वीर ‘मरहठों’ का दल जय-
जयकार बोलने वाला है’’
पुचकार-प्यार के बंधन से-
हम ले न सके थे अँगड़ाई
हम पीछे ही रह गये और
‘गंगा’ बढ़कर आगे आयी
‘गंगा’ जानी-पहचानी है
यह नहीं ‘बाढ़’ का पानी है
लहरों पर चढ़ आने वाली-
यह तो ललकार पुरानी है
तुम इसे ‘बाढ़’ का नाम न दो
यह उमड़ी ‘गंगा’ की पीड़ा-
हम आर्यों के पवित्र पौरूष-
को छेड़, कर रही है क्रीड़ा