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तुम उसको कितना जानती हो ? / शंख घोष / जयश्री पुरवार

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हाथों में माया के कितने अभिशाप संचित कर रखे है,
बगल ही में है नदी,

फिर भी सब खुल जाते हैं, जाने पहचाने शहर से दूर
ऊँची नीची हरी-भरी ढलान
कभी कभी उसी के पास झुकना अच्छा लगता है
लावण्यमय उद्भिद् (वनस्पति)
तुम वो सब कितना जानती हो ?

यह नदी, एकाकी
दोनों नयन सूर्यास्त की ओर रखती है प्रवाहित,
इससे क्या मै बहुत दूर चला आया हूँ ?

मूल बांग्ला से अनुवाद : जयश्री पुरवार