भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तुम उसको कितना जानती हो ? / शंख घोष / जयश्री पुरवार
Kavita Kosh से
हाथों में माया के कितने अभिशाप संचित कर रखे है,
बगल ही में है नदी,
फिर भी सब खुल जाते हैं, जाने पहचाने शहर से दूर
ऊँची नीची हरी-भरी ढलान
कभी कभी उसी के पास झुकना अच्छा लगता है
लावण्यमय उद्भिद् (वनस्पति)
तुम वो सब कितना जानती हो ?
यह नदी, एकाकी
दोनों नयन सूर्यास्त की ओर रखती है प्रवाहित,
इससे क्या मै बहुत दूर चला आया हूँ ?
मूल बांग्ला से अनुवाद : जयश्री पुरवार