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तुम ऋतुपति प्रिय सुघर कुसुम चय / सुमित्रानंदन पंत

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तुम ऋतुपति प्रिय सुघर कुसुम चय
हम कंटक गण!
स्वाति स्वप्न सम मुक्ता निरुपम
तुम, हम हिम-कण!

निठुर नियति छल हो कि कर्म फल
यह चिर अविदित,
चख मदिरा रस, हँस रे परवश,
त्याग हिताहित!