तुम ऋतुपति प्रिय सुघर कुसुम चय
हम कंटक गण!
स्वाति स्वप्न सम मुक्ता निरुपम
तुम, हम हिम-कण!
निठुर नियति छल हो कि कर्म फल
यह चिर अविदित,
चख मदिरा रस, हँस रे परवश,
त्याग हिताहित!
तुम ऋतुपति प्रिय सुघर कुसुम चय
हम कंटक गण!
स्वाति स्वप्न सम मुक्ता निरुपम
तुम, हम हिम-कण!
निठुर नियति छल हो कि कर्म फल
यह चिर अविदित,
चख मदिरा रस, हँस रे परवश,
त्याग हिताहित!