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तुम और महावृश्चिक / दिनेश कुमार शुक्ल

आकाश का गुम्बद
फूटता है बुलबुले सा
प्रकट होता है
काला अन्तरिक्ष जहाँ
अन्धकार की चट्टान पर
बैठा महावृश्चिक
डंक उठाकर
एक नीले नक्षत्र को
फोड़ने ही वाला है --

कि
तुम प्रवेश करती हो
आभास की तरह

पहले तो
तुम
व्याप्त होती हो
दिक् में प्रकाश बन कर
और त्रिकाल की
पोर-पोर मे
भर जाती हो
स्वप्न की तरह

फिर तुम जीवन बनकर
प्रवेश करती हो
पंचभूत में
और पुनर्जन्म की तरह
मृत्यु में
नदियों की तरह समुद्रों में,

जल की तरह पाताल में,
प्रवाह की तरह हवा में,
और निनाद की तरह
गूंजती हो
सृष्टि की सभी तरलताओं में
फिर तुम प्रवेश करती हो
चराचर में
गति और स्थिति की तरह,
जीवन में विविधता
और
मृत्यु में एकरस एकान्त की तरह
प्रवेश करती हो तुम

जीवन कीससीमता को
तुम भरती हो
तिमिंगलों और महावृक्षों की
विराटता से

तुम हठ की तरह
घुसती हो वाइरस
और बैक्टीरिया में
और जीवट की तरह
दूब में

तुम एक साथ मुखरित करती हो
अस्ति को नास्ति को
संदेह को संभावनाओं को
और फिर
तुम प्रवेश करती हो
अपनी उपस्थिति और
अनुपस्थिति में एक साथ

अपने विस्तार के
चरम क्षणों में
अन्त में
तुम प्रवेश करती हो
लोरी में
प्रार्थना में
कविता में
विस्मय की तरह
इलहाम की तरह
उल्लास की तरह
चकित-चकित

सब कुछ भर देने के बाद
तुम घुसती हो
उस गुफा में
जिसमें अपना तत्व छुपा कर
धर्म
भविष्य के परे कहीं
सोने चला गया था,
और गुफा से
उठा कर लाती हो तुम
चमगादड़ों की बीट में सनी हुई
तीन रंगों की तीन मणियाँ
जिन्हें एक-एक कर
अंतरिक्ष की काली चट्टान
पर
पटक कर तुम फोड़ती हो

पहली मणि से
उमड़ती है तमस् की नदी
तैरते हैं जिसमें
भूख लोभ युद्ध मृत्यु और
कल्मष के
व्याल-कच्छप-मत्स्य,
मोड़ देती हो
इस नदी को तुम
भूतकाल के कुंभीपाक
महासागरों में

दूसरी मणि के विस्फोट से
निकलते हैं
दूध मधु अन्न उद्यम और
विद्या के हंस
जिनसे तुम भर देती हो
वर्तमान और भविष्य के
दिक् प्रसार को

और जब फूटती है
तीसरी मणि
तो उससे निकलती हो
तुम स्वयं

और तब तुम उठा कर
अपनी प्रलम्भ भुजा
तोड़ती हो महावृश्चिक का डंक
और तोड़कर उसे
फेंक देती हो भूतकाल में,
पिछली सृष्टियों के
मलबे के गर्त में--
ताकि आगे फिर न संभव हो सके
दूसरा कोई महावृश्चिक
कभी फिर भविष्य में

और तिरोहित होने के पहले तुम
प्रवेश करती हो मुझ में
प्रेम की तरह, कविता की तरह
प्रकाश के पक्षियों की तरह
कल-कल करती नदियों
और मर्मर करते वनों की तरह
और स्वयं की तरह
और स्वयं की तरह
और स्वयं की तरह

आकाश का
इंद्रनील गुम्बद
नया धुला-पुछा जगमगाता है
फिर से।