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तुम और मैं / विश्वासी एक्का

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तुम मुझे कविता-सी गाते
शब्दालँकारों और अर्थालँकारों से सजाते ।

मैं भी कभी छन्दबद्ध
तो कभी छन्दमुक्त हो
जीवन का संगीत रचती …।

पर देखो तो
मैं तुम्हें गद्य-सा पढ़ती रही
गूढ़ कथानक और एकालापों में उलझी रही
यात्रावृतान्तों की लहरीली सड़कों पर
भटकती रही
और तुम व्यंग्य बन गए

मैं स्त्री थी, स्त्री ही रही
तुम पुरुष थे
अब महापुरुष बन गए ।