भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम और हम / हूबनाथ पांडेय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम जनमे
तब देश ग़ुलाम था
हम जनमे
आज़ाद देश में
तुम थे कमज़ोर
पर अपनी कमज़ोरी को
अपनी ताक़त बनाते रहे
हम अपनी ताक़त
बदलते रहे कमज़ोरी में
तुम होते गए निरंतर निर्भय
हम डर की खोल में
कछुए जैसे
तुमने सच को साथी माना
हमने संकुचित स्वार्थ को
तुम जोड़ रहे थे
हम तोड़ रहे हैं
अहिंसा तुम्हारा धर्म
हिंसा हमारी आदत
तुम क्षमा करते रहे
हम नफ़रत
तुम निश्छल थे
हम चंचल हैं
तुमने आंख मूंद कर
विश्वास किया हमारी
अच्छाइयों पर
और हमने सिर्फ़
इस्तेमाल किया
तुम्हारे सिद्धांतों को
तुम कण कण बढ़ते गए
हम तिल तिल घटते रहे
तुम हमें जिलाने के
सार्थक बनाने के
रास्ते तलाशते रहे
और हम तुम्हें मारने के
जड़ से उखाड़ने की
तरकीबें ढूंढ़ते रहे
तुम ख़ुशबू की तरह
पसरते रहे
सारी क़ायनात में
हम अपनी दुर्गंध में
होते रहे क़ैद
जबकि एक बार
तुमने ही हमें कराया आज़ाद
हमारी कमज़ोरियों से
आज तुम हो गए
डेढ़ सौ वर्ष के
और ज़िंदा हो
हम मर रहे हैं रोज़
तलाश रहे
ज़िंदगी के बहाने
और शर्मिंदा हैं
कि नहीं पहचान पाए तुम्हें
वक़्त रहते
वरना शायद बचा पाते
जीवन अपना भी
और अपनों का भी
अब तो सिर्फ
अफ़सोस रहेगा
कि तुम्हें तस्वीरों में
जड़ने की जगह
मन में जड़ते
पुस्तकों में पढ़ने की बजाय
जन में पढ़ते
तो कितना अच्छा होता
पर अब तो देर हो चुकी है।