तुम कवि हो / डिम्पल राठौड़
तुम कवि हो । क़लम तुम्हारा हथियार हैं
तुम अपने अधिकार से भी डर रहे हो !!
तुम हो ज्वाला एक, तपन में मर रहे हो
तुम क्रान्ति हो एक, घुँघरू की आवाज़ सुन रहे हो ।
तुम हो एक उजला सवेरा, धुन्ध से घिर रहे हो
तुम हो एक चमकता सितारा, झुण्ड में खड़े हो
कालसर्प हो तुम, पिटारी में पड़े हो,
खुला आसमान हैं तुम्हारे पास
पंख फैलाने से तुम डर रहे हो ।
तुम्हें डर है विद्रोह होगा, तुम इसी सोच में मर रहे हो
तुमसे उम्मीद है इस युवा पीढ़ी को
तुम अपने साथ-साथ, डर से इनको भयभीत कर रहे हो
तुम कवि हो, कलम तुम्हारा हथियार है
तुम अपने अधिकार से डर रहे हो !!
तुम नया सवेरा हो भावी पीढ़ी का
अपनी क़लम में वो ताक़त लाओ
जो मिटा दे ऊँच नीच की भावना दिलों से
अपने शब्दों से इन युवा को समझाओ
तुम तीर हो, पा सकते हो अपना लक्ष्य
इस लक्ष्य को अब तुम भेद जाओ
विद्रोह के डर से तुम यूँ न मूकबधिर बन जाओ
उठाओ ये जाति धर्म का पर्दा
इनसान को इनसान की अहमियत समझाओ
लिख दो वो हर शब्द जो भर दे जान
युवा पीढ़ी में
ना भटके फिर कोई इस बीहड़ में
तुम्हारे शब्दों से एक उजला सवेरा हो
इस सवेरे में तुम अब खुद को पाओ
तुम कवि हो अपने हथियार को यूँ ना भूल जाओ