तुम कहीं के भी कवि क्यों न हो / सरोज कुमार
हो सकता है मेरे यहाँ दिन हो
तुम्हारे यहाँ रात हो!
मेरे यहाँ वसंत हो
तुम्हारे यहाँ पतझर!
मेरे यहाँ प्रजातंत्र
तुम्हारे यहाँ तानाशाही!
मेरे यहाँ गरीबी
तुम्हारे यहाँ ऐश्वर्य!
मरती हों औरतें मेरे यहाँ कुएँ में गिरकर
तुम्हारे यहाँ गोलियाँ खाकर!
इससे क्या फर्क पड़ता है?
वसंत जब भी होगा और जहाँ भी
फूल खिलेंगे
कशिश जब भी होगी और जहाँ भी
कवि पैदा होंगे!
कोई फर्क नहीं पड़ता
तुम्हारी चमड़ी के रंग
और जीने के ढंग से,
तुम्हारी आस्थाओं और ईश्वर से!
यह काफी है तुम्हें जानने के लिए
कि तुम कवि हो
और अगर हो, तो
कहीं के भी क्यों न हो
तुम्हारी अनुभूतियों के आलम्बन
और सवेंदनाओ के मूलधन
अनजाने नहीं हैं,
कविता का पहला प्यार पीड़ा है!
आग जहाँ भी होगी,
आग होगी,
ईधन के हिसाब से,
आग कि जात नहीं बदलती!
नदी जहाँ भी होगी,
नदी होगी,
किसी देश कि नदी
पहाड़ पर नहीं चढ़ती!
तुम्हारी कविताएँ
जितनी तुम्हारी हैं उतनी हमारी भी,
कविता की कोई
मेकमोहन रेखा नहीं होती!
कविता का समूचा जुगराफिया
एकमात्र इंसान है-
जिसकी सम्प्रभुता में
प्रभुता नहीं, प्यार है!