भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम कह देना / अनीता सैनी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक गौरैया थी, जो उड़ गई,
 एक मनुष्य था, वह खो गया।
 तुम कह देना
 इस बार,
 कुछ भी कह देना,
 जो मन चाहे, लिख देना,
 जो मन चाहे, कह देना।
कहना भर ही उगता है,
अनकहा
खूँटियों की गहराइयों में दब जाता है,
 समय का चक्र निगल जाता है।
ये जो मौन खड़ी दीवारें हैं न,
 जिन पर
 घड़ी की टिक-टिक सुनाई देती है,
 इनकी
 नींव में भी करुणा की नदी बहती है,
 विचारों की अस्थियाँ लिये।
-0-