तुम काले क्यूँ हो कान्ह / निधि सक्सेना
तुम काले क्यूँ हो कान्ह
हमें तो उजला रंग पसंद है
उजले रंग पर लाल सफेद चम्पा की माला कितनी सुहाती
ये जो दो मयूर पंख तुम्हारे मुकुट पर सजे रहते हैं
कितना अधिक मन मोहते
रोली और चंदन का टीका कितना मधुर लगता
कटि पर पीताम्बर
कितना अधिक सोहता
गोरे रंग पर मुक्तावली सी दंतपंक्ति
मानो उज्ज्वल आकाश के वक्ष पर झूलती मोती की लड़
जब तुम्हारे उजले कांधे को काले घुंघराले केश छूते
और तुम अपने नीलपद्म नयनों से कुंचित सा मुस्काते
कहो इसकी उपमा कहाँ से खोजूँ
परंतु तुम तो ठहरे श्यामवर्ण
कुछ कुछ नीले कुछ कुछ काले
कई बार नीले रंग में काला रंग मिला कर देखा
कि कल्पना कर सकूँ
कि किस रंग में रंगे हो तुम
कुछ अनहद सा रंग है वो
कुछ अलहदा सा
अपने में अनंत समाये
जैसे ढलती साँझ में सागर का रंग
अनगिनत रहस्यमयी लहरों से बंधा
वो लहरें अवश्य ही गोपिकाएं होगी
जो तुम्हें बेतहाशा प्रेम करतीं थीं
उनमें एक राधा भी होंगी
काश कि तुम उजले होते
तो तुम्हें ढूंढते वो अँधेरो में न भटकती
विरह वेदना में
अपनी देह पर नीला रंग न मलती
श्यामल यमुना को अपना कान्हा समझ
उसमें घंटो न बिताती
सुनो कान्ह
कि अगर तुम गोरे होते
तो मैं तुम्हें अनंत लहरों से
एक लहर अधिक प्रेम करती
सूर्य आलोक से तुम्हें बांध लेती
कृष्ण तमाल की छाया में तुमसे मिलती
निर्निमेष मुग्ध तुम्हें निहारती
गोरे कान्ह की गोरी सखी कहलाती