तुम काश्मीर के लिए न शम्सीरें तानो / शंकरलाल द्विवेदी
तुम काश्मीर के लिए न शम्सीरें तानो
(1)
हम मानवीय तत्वों के सच्चे साधक हैं,
है प्रबल बहुत सन्मान हमारा, सच मानो।
अपने नापाक इरादों पर संयम रख लो,
तुम काश्मीर के लिए न शम्सीरें तानो।।
(2)
हर बात अगर कहने वाली ही हुआ करे,
संकेतों के जीवन पर बिजली गिर जाए।
घुट जाए रहस्यों की गलियों में निरा धुआँ,
गम्भीर विचारों के सपने ही मर जाएँ।।
(3)
कल जने पूत, घुटनों के बल चल पाए हो,
पैरों पर होना खड़ा, सीख तो लो पहले।
जो हाथ सहारा तुम्हें आज दे-देते हैं,
कल क्या मालूम, उन्हें कोई विषधर डँस ले।।
(4)
फिर समय किसी का सगा नहीं मेरे भाई,
ख़ूनी पंजा है- परिवर्तन के हाथों में।
इतना निश्चित है, विजय सत्य की होती है,
कुछ तथ्य नहीं बेतुकी-बहकती बातों में।।
(5)
हम बार-बार समझाते तुमको आए हैं,
क्यों व्यर्थ मृत्यु को स्वयं निमंत्रण देते हो?
शायद कब्रों के लिए जगह की कमी पड़े-
औरों के घर पर नज़र गढ़ाए रहते हो?
(6)
हर पंथ किया, वेदों ने सदा प्रशस्त हमें,
सब कुछ ईश्वर का दिया हुआ है धरती पर।
हम भागधेय औरों का लेते नहीं कभी-
दावा न किसी का होने देंगे- मिट्टी पर।।
(7)
वैसे कुपात्र को दान दिया तो नहीं कभी,
बन कर फ़कीर तुम अगर द्वार पर आए तो-
तुमको समोद, थाली तक अर्पित कर देंगे,
लेकिन, जासूसी-फंदा कोई लाए, तो-।।
(8)
जो अंडे कर विद्रोह, परिधि से निकल गए,
विख्यात, सर्पिणी उन्हें स्वयं ही खा लेगी।
जिसको पाला था दूध पिला कर सीने का-
माँ उसे उढ़ा कर कफ़न, बहुत है रो लेगी।।
(9)
निर्द्वन्द्व शांति के गीत हमें गा लेने दो-
मत करो कभी मजबूर कि भैरव में गाएँ।
क्या होगा, हर कवि रूप धरे यदि ‘भूषण' का?
फिर ‘रासो’ रचने ‘चन्द’ धरा पर आ जाएँ।।
(10)
'अकबर' के लिए गीत श्रद्धा से, लिख देंगे-
गा देंगे, यह विश्वास कभी मत कर लेना।
तुम चले अगर 'औरंगज़ेब' के चिह्नों पर-
हर साँस 'शिवाजी' होगी, सोच-समझ लेना।।
(11)
सम्भव है, वह दिन तुझे देखना पड़ जाए-
कंधे देने वाला भी कोई मिले नहीं।
'खिलजी' के घावों से बहता है रक्त अभी,
'बाबर' के बख़्तर भी तो अब तक सिले नहीं।।
(12)
व्यभिचार जिन्हें चौखट तक आना भुला गया,
ऐसी चुड़ैल दो-चार, सहज हैं मिल जाएँ।
जो पेट भरेंगीं सात-भाँवरों वाले से,
मिल गई ढील, तो गीत पड़ोसी के गाएँ।।
(13)
हर समझदार कुछ क़दम उठाने से पहले-
विधिवत् कर लेता है- परिणामों पर विचार।
इसलिए उचित है, अपने ही हित में भाई-
तुम भी कर लो, कुछ मानचित्र में त्रुटि सुधार।।
(14)
ऐसा न हो कि अंगार हिमालय से बरसें,
राजस्थानी तलवारें फिर से चमक उठें।
फिर 'चौहानों' के बाण, धनुष पर चढ़ जायें-
'गुर्जर' बल खाकर, क्रुद्ध सिंह से गरज उठें।।
(15)
हो उठे प्रकंपित, क्षुब्ध गगन का अन्तराल,
सागर उत्ताल तरंगों से आप्लावित हो।
रह जाए प्रेम का नाम पुस्तकों में केवल-
हर हाथ, मात्र हिंसा हित ही संचालित हो।।
(16)
चढ़ गया चतुर्दिक अगर तोप का धुआँ कहीं-
हर ओर अँधेरे का शासन हो जाएगा।
हर लहर वायु की गरल उगलने लगी कहीं-
मानवता का अन्तस् पाहन हो जाएगा।।
(17)
घुट कर मर जाएँगे कितने अबोध सपने?
क्रन्दन से कान दिशाओं के फट जाएँगे।
कितने हाथों की हरी चूड़ियाँ टूटेंगी?
कितने राखी के तार, धरे रह जाएँगे?
(18)
कितनी गोदों में सूनापन घहरायेगा,
कब, कौन ब्याह से पहले ही विधवा होगी?
कितने तुतले बचपन अनाथ से भटकेंगे?
कितने यौवन हो जाएँगे, खंडित योगी?
(19)
जब समय डाकिये के आने का होता है-
हर रोज़ 'हमीदन' दरवाज़े तक आएगी।
लेकिन 'रशीद' का पत्र नहीं मिल पाया तो-
अपने आशा-विश्वास दफ़्न कर जाएगी।।
(20)
फिर ईद-मुबारक के दिन भी मातम होगा,
इसलिए हमें चिन्ता है, युद्ध न छिड़ पाए।
'गोरा-बादल' का नाम सुना तो होगा ही-
कुछ डरो, न उनके कान भनक पड़ने पाए।।
(21)
जितनी सुहाग की शाख रहेंगी अनफूली,
निर्लज्ज तुझे अभिशाप सभी मिल कर देंगी।
उतने जन्मों में, तू होगा अबला नारी,
सन्तति के लिए गोद, तेरी भी तरसेगी।।
(22)
यह वही देश है, जहाँ भूमि के लिए कभी-
रच गया महाभारत बच्चों के खेलों-सा।
यदि काश्मीर की ओर बढ़ाया पाँव कभी,
मसला जाएगा सर, मिट्टी के ढेलों-सा।।
(23)
जिन पर तूने विश्वास किया है, उनकी ही-
संगीनें, जब तेरे सीने पर तन जाएँ।
अपना कहकर आवाज़ लगा लेना मुझको-
आऊँगा, भाईचारा कहीं न मिट जाए।।
-३ मई, १९६४