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तुम किसके सपने में चले गये शान्तनु ! / ध्रुव शुक्ल
Kavita Kosh से
आँखों में भर आया है इतना पानी
डूबते ही जा रहे हैं सारे सपने
ठिठकी हुई हैं पूरे कुटुम्ब की पलकें
ढह रहा है हमारे धीरज का पुल
पटरी से उतरे
खाली डिब्बों की खिड़कियों जैसे
देख रहे हैं हम एक-दूसरे को
नहीं मिल रहा हमारा खोया हुआ सामान
हमारे सपने की रेलगाड़ी से उतरकर
तुम किसके सपने में चले गये शान्तनु !