भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम क्या छोड़ गए मानस का मधुवन ही वीरान हो गया / महावीर प्रसाद ‘मधुप’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम क्या छोड़ गए मानस का मधुवन ही वीरान हो गया
जीवन का प्रसाद मनोरम, खण्डरह-सा सुनसान हो गया

मधुर मिलन की मादक घड़ियाँ, हँसी-खुशी, आलाप-उलहने
यादों के झुरमुट में जैसे सब कुछ अन्तर्धान हो गया

क्रुर नियति ने कुचल दिया अरमानों की कोमल कलियों को
लगता जैसे दर्द जिगर का, अनचाहा मेहमान हो गया

नहीं रहे सोने-से वे दिन, और न वे चांदी-सी रातें
साँसों का संगीत बदल कर, अब तो विप्लव-गान हो गया

सिसक रही है साध अधूरी, नागिन-सी डसती मजबूरी
कैसा यह माहौल कि हर पल, आहों का तूफ़ान हो गया

कैसे पतझर के मौसम में आशा की कोकिल मुस्काए
कैसे गीत ‘मधुप’ जब मधुरस ही विषपान हो गया