भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम क्या जानो / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

1
तुम क्या जानो
मन क्यों था व्याकुल
दुःख तुम्हारा
रोम-रोम में छाया
जीभर था रुलाया।
2
अधर छुए
उठी सिन्धु-तरंग
उद्दीप्त मन
प्राण बाँसुरी हुए
रोम-रोम झंकृत।
3
देखा जो चन्द्र
बौरा गई लहर
व्याकुल बड़ी
चूमने को तत्पर
मुझे लगा-तुम हो।
4
अधर चूम
मन व्यथा जो रही
वो कथा कही
दिल में जो दबी थी
बरसों से आग-सी।
5
गले लगाया
नभ का वह चाँद
धरा पे आया
बाहों में लिपटाया
नहीं कसमसाया।
-0-