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तुम क्यों न गा रहे हो? / विद्याधर द्विवेदी 'विज्ञ'
Kavita Kosh से
तुम क्यों न गा रहे हो?
तूफान के चरन में, सोये हुए सितारों!
मत आज के नयन में, कल की व्यथा निहारो
कल दूर हो गया है, लो आज बीतने को
कल के लिये सजग हो, तुम क्यों न आ रहे हो?
ऐ हार के अधर में, पलते हुए सितारों!
धूमिल उपत्यका में, ढलते हुए सितारों
जो रात रात जलती, उस ज्योति के सहारे
आकाशा के नयन में, तुम क्यों न छा रहे हो?
सोए हुए सितारों! जगते हुए सितारों!
तम की शिला अधर से, रंगते हुए सितारों!
यह अंधकार भारी, यह अंधकार जारी
तुम ज्योति के परों से उड़ क्यों न जा रहे हो?
तूफान भी सदा को, आबाद तो नहीं है
अवसान की परिधि से, आजाद तो नहीं है
फिर क्यों न मुस्कराना, फिर क्यों न गीत गाना
तुम क्यों न चाँदनी की, गंगा बहा रहे हो!