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तुम चले, चलते रहे / त्रिलोचन
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तुम चले, चलते रहे, छूटे पथिक साथी तुम्हारे
मौन आँखों में तुम्हारी
कौन सा विश्वास फड़का
नाड़ियों में रक्त भरने
के लिए ही हृदय धड़का
मन अचंचल है सधा तन
उच्च शिर, उर व्याप्त गुंजन
नापते हो तम धरातल एक निश्चय भाव धारे
क्षितिज में सोया हुआ था
सामने पर्वत खड़ा है
कब रूके तुम, कब थके तुम
पाँव शेखर पर पड़ा है
दीर्घ कर जैसे बढ़ा कर
शीश पर अपने चढ़ा कर
मत्त गज सा अद्रि समुदित सूर्य की पूजा सँवारे
नद नदी ने पाँव धोए
पुष्प पादप ने चढ़ाए
मेघ ने सित छत्र ताना
वायु ने चामर हिलाए
इंद्रधनु नत सूर्य ने दी
चंद्र ने दीपावली की
तुम न हारे देख तुम को दूसरे जन भी न हारे
(रचना-काल - 31-10-48)