भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तुम छेड़ो मेरी बीन कसी रसराती / हरिवंशराय बच्चन
Kavita Kosh से
तुम छेड़ो मेरी बीन कसी, रसराती।
बंद किवाड़े कर-कर सोए
सब नगरी के बासी,
वक्त तुम्हारे आने का यह
मेरे राग विलासी,
आहट भी प्रतिध्वनित तुम्हारी
इस पर होती आई,
तुम छेड़ो मेरी बीन कसी, रसराती।
इसके गुण-अवगुण बतलाऊँ?
क्या तुमसे अनजाना?
मिला मुझे है इसके कारण
गली-गली का ताना,
लेकिन बुरी-भली, जैसी भी,
है यह देन तुम्हारी,
मैंने तो सेई एक तुम्हारी थाती।
तुम छेड़ो मेरी बीन कसी, रसराती।